कभी-कभी कुछ घटनाएं आत्मचिंतन और आत्ममंथन का अवसर देती हैं। लेकिन इन अवसरों पर चिंतन या मंथन भी सामजिक, राजनीतिक, और आपराधिक दुष्प्रवृत्ति को कम नहीं कर पाता है; यह चिंता की बात है। आज मैं हालिया दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूँ। जो लोग मेरे लेखन से कुछ सनसनीखेज या धारा के साथ एक और लहर की उम्मीद करते हैं, वे निराश हो सकते हैं, लेकिन जिनकी सोच अभी भी उपजाऊ है, उनके जेहन में कुछ अन्य विचार उभर सकते हैं जो निराशा के बजाय समाज और देश के लिए समान रूप से फायदेमंद हो सकते हैं।
पहली घटना लखनऊ में एक सिपाही द्वारा एक निर्दोष नागरिक की हत्या है, और दूसरी घटना है कि तनुश्री दत्ता ने बॉलीवुड में महिलाओं के शोषण के बारे में मुखर होना। वैसे देखें तो दोनों घटनाओं में कोई समानता नहीं है, लेकिन अगर हम गहराई में जाते हैं, तो आने वाले समय में तेजी से बढ़ने वाले बड़े बदलाव की किरणें स्पष्ट रूप से दिखाई दे सकती हैं।
पहली घटना में तीन महिलाएं हैं जिन्होंने कई साहसिक कदम उठाए हैं।
1. मक़तूल के साथ मौजूद महिला : जिसने सभी प्रकार के धार्मिक, सरकारी, राजनीतिक और सर्वाधिक पुलिसिया दबाव का सामना किया है। उसका यह तय करना, कि बेहया प्रश्नों और बेहूदे आक्षेपों का सामना करते हुए भी हर कीमत पर सच्चाई को सामने लाने की कोशिश करेगी, निःसंदेह एक बेहद साहसिक कदम है और इस कदम में आहट है उस परिवर्तन की जहाँ स्त्री तथाकथित बदनामी के भय से बाहर निकल कर चुनौती देने की मुद्रा में है। सुखद है !
२. मक़तूल की पत्नी : जिस प्रकार से सिपाही द्वारा की गई हत्या के साथ ही पुलिस और प्रशासन बेशर्मी और नंगई का खेल खुल कर खेलने लगा उससे यही लग रहा था कि मक़तूल की पत्नी को आगे लाकर उसके मर्म को दूसरी महिला की मौजूदगी से आहत कराकर बड़ी आसानी से पत्नी को ‘वो’ से पीड़ित और पुलिस को पत्नी का हमदर्द के रूप में प्रस्तुत कर देंगे। परन्तु मक़तूल की पत्नी ने पुलिसिया रवैये की पीड़ा झेलते हुए भी सिस्टम की बदनीयती को लोगों के सामने रख दिया। अर्थात एक और स्त्री तथाकथित बदनामी और चरित्रहनन की पीड़ा को धता बताते हुए शासन और प्रशासन दोनों को आईना दिखा रही है। उसने तो मानों घोषणा ही कर दी है कि चरित्र, सम्बन्ध और सामजिक स्वीकार्यता पति-पत्नी आपस में तय करेंगे न कि चोर और लुटेरे गिरोह के अदना और सरगना। साहसिक है !
इससे पहले कि मैं तीसरी महिला का जिक्र करूँ, आइये एक बार हम देश और प्रदेश की प्रशानिक हकीकत पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात कर लें-
नौकरशाही और पुलिस विभाग में जिस स्तर पर आपराधिक संरक्षण की स्वीकार्यता है वह किसी से भी छिपी नहीं है परन्तु लखनऊ हत्याकांड में पुलिसकर्मियों का संगठित होकर सार्वजनिक रूप से नैसर्गिक न्याय की माँग का विरोध करना और न्यायालय के कार्य का पुरजोर अतिक्रमण करना देश व प्रदेश में संगठित गिरोहों के दुस्साहस और नागरिकों की अघोषित गुलामी को सहज ही प्रदर्शित करता है। विडम्बना यह है कि ये रोग असाध्य न होते हुए भी इसका इलाज करने की कोशिश नहीं की जाती है क्योंकि ये संकुचित और दिशाहीन राजनीति को अनवरत उर्वरता एवं भूमि दोनों उपलब्ध करवाती है।
फिलहाल जिक्र करते हैं तीसरी महिला का-
३. कातिल की पत्नी : सम्पूर्ण घटनाक्रम में कातिल की पत्नी का लोगों के सामने आना कोई बड़ी बात नहीं थी; परन्तु अभियुक्त सिपाही की पत्नी अपने पति के समर्थन में लोगों की सहानुभूति लेने नहीं अपितु पति के लिए लामबंद होकर न्याय और प्रशासन को धता बताने वाले पुलिसियों को लामबंदी और समर्थन से रोकने के लिए पत्नी का अपील करना वास्तव में आश्चर्यजनक और सुखद है। यू. पी. पुलिस का एक आपराधिक अभियोग-शुदा कर्मी के लिए लामबंद होकर मुहिम चलाना और स्वयं अभियुक्त की पत्नी का ऐसी मुहिम न चलाने का अनुरोध करना, विभाग की मंशा और कारस्तानियों दोनों को बेपर्दा करने के लिए काफी है। शंका होती है कि वो हत्यारा सिपाही असल में किसका सुहाग है। यानि यहाँ भी पति-पत्नी और वो !
किसी भी परिस्थिति में यह कहना गलत न होगा कि महिलायें अब चरित्र-हनन और लोकलाज जैसी चीज़ों को उनके वास्तविक दायरे में बाँधने को प्रतिबद्ध होती दिख रही हैं। इन तीनो महिलाओं की पीड़ा और कष्ट को नकारा नहीं जा सकता है परन्तु समग्र रूप में जो तस्वीर उभर कर सामने आने को बेताब है वह ये कि हर एक अनावश्यक, अप्रासंगिक, अनुचित, अन्ययायपूर्ण विचार, घटना, कृत्य या कार्य के लिए महिलाओं को दायरे में रखने के लिए जिन दो हथियारों (चरित्रहनन और सामजिक अस्वीकृति) का प्रयोग अचूक था महिलाओं ने उन्हें ही दायरा बताना शुरू कर दिया है।
दूसरी घटना में एक अकेली महिला ने बिगुल फूँका है। ये बिगुल भी एक संगठित गिरोह के ही विरुद्ध है जिसके पास दमन करने की ताकत के साथ-साथ कानूनी ताकत को भी खरीदने में महारथ हासिल है। तनुश्री ने जिस तरह से बॉलीवुड में हर स्तर पर हो रहे स्त्री शोषण की समस्या उठाई है वह उसी श्रृंखला की एक कड़ी है जो हमें लख़नऊ हत्याकांड में नजर आती है; बस रत्ती भर फर्क है- एक जगह सामाजिक असुरक्षा और कलंक के भय को हथियार बना कर दमन किया जा रहा है तो दूसरी जगह कैरियर और व्यक्तिगत सुरक्षा के भय को हथियार बनाकर महिला का शारीरिक और मानसिक शोषण करके ये अहसास कराने की सफल कोशिश कि हमारी इच्छा के विरुद्ध जाकर आप इस दुनिया में बने नहीं रह सकते। परन्तु इस मामले में भी एक महिला ने साफ़ झलक दिखा दी है कि भय की नीति को अब दायरे में रहना होगा अन्यथा अब आधी आबादी किसी भी भय के मुँह में लगाम डालने से नहीं झिझकेगी।
यह तस्वीर और ये मानसिकता अचानक प्रकट नहीं हुई है बल्कि लगातार दमन और अन्याय की पीड़ा सहने के बाद इसका जन्म हुआ है। मंशा स्पष्ट है कि सहना दर्द और कलंक ही है तो क्यों न इसे अपने लिए लड़ते हुए सहा जाय बजाय इसके कि घुटते और घिसटते हुए। यदि मेरे कान ठीक हैं तो 2020 के दशक में भय की व्यवस्था चरमराने और न्याय के लिए दर्द सहते हुए संघर्ष के मुखर होने के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। अच्छा होगा कि विध्वंस के आर्तनाद का इंतज़ार करने की अपेक्षा न्याय को सम्मान हो और अन्यायपूर्ण मंशाओं को पुष्पित पल्लवित होने से रोका जाए अन्यथा बचाने को न भूमि होगी न पालने को उर्वरता।